वैरिकाज वेन्स को रोकने के लिए जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता

देहरादून:हाल ही में सामने आए आंकड़ों के अनुसार वैरिकाज वेन्स और वेन्स की समस्याएं बहुत आम हैं और करीब 30 प्रतिशत भारतीय आबादी को यह प्रभावित करती है। इस बीमारी में समय के साथ स्थिति और खराब हो सकती है और रक्तस्राव, थक्के और अल्सर जैसी गंभीर जटिलताओं को भी जन्म दे सकती है। इससे जीवन की गुणवत्ता पर भी प्रभाव आ सकता है। आज आवश्यकता है कि इस स्थिति के लिए उपलब्ध नवीन उपचार विकल्पों एवं बरती जा सकने वाली सावधानियों के महत्व पर जागरूकता बढाई जाए।
इस मामले में एक उदाहरण एक महिला मरीज का है, जिसे वैरिकाज वेन्स और क्रोनिक वेन्स डिसीज के कारण अल्सर से खून बहने कि समस्या से जूझना पड़ रहा था। देहरादून में पहली बार आधुनिक ग्लू चिकित्सा का उपयोग करके एक क्रिटिकल सर्जरी की गई। यह अपनी तरह की एक अलग सर्जरी है, जिसमें बुजुर्ग महिला का उपचार किया गया। यह शहर में स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक सकारात्मक माहोल बनाने में मददगार होगी। इस बारे में बात करते हुए कृष्णा मेडिकल सेंटर देहरादून के कंसल्टेंट वेस्क्यूलर एवं एंडोवेस्क्युलर सर्जन डॉ. प्रवीण जिंदल ने बताया कि वेरिकोज नसें शरीर में कहीं भी हो सकती हैं। सामान्य तौर पर इन्हें पैरों में या घुटने के पिछले हिस्सों में देखा जाता है। वे त्वचा के नीचे मुड़ी हुई और बढ़ी हुई नसों के रूप में सामने आती हैं। रक्त का अत्यधिक दबाव वेन्स को कमजोर करते हुए नुकसान पहुंचा सकता है। इससे एडिमा, तेज दर्द और बेचैनी की शिकायत हो सकती है। इस स्थिति के कुछ सामान्य लक्षणों में पांव में भारीपन के साथ दर्द, स्कीन का रंग बदलना, चुभने वाला दर्द, प्रभावित क्षेत्र का फीका पड़ जाना, शरीर में ऐठन, खिंचाव या गंभीर दर्द महसूस होना एवं त्वचा में खुजली या जलन शामिल है।
डॉ. जिंदल ने बताया कि लेजर, रेडियो फ्रिक्वेंसी, एबलेशन और स्केलेरोथेरेपी लंबे समय से वेरीकोस वेंस के लिए उपयोग में लाई जा रही उपचार पद्धति है। यह पहली बार है जब एन-ब्यूटाइल-2-सायनाक्रायलेट (एनबीसीए) से बनी और एफडीए द्वारा अनुमोदित ग्लू थेरेपी का उपयोग किया गया है। यह थेरेपी नई आशा जगाती है और पारंपरिक लेजर या आरएफए तकनीक के मुकाबले इसके कई फायदे हैं। इस तकनीक में मरीज को केवल दो-तीन मिलीमीटर की एक छोटी सी सुई चुभाई जाती है। वह ऑपरेशन थिएटर से तुरंत बाहर आ जाते हैं और वे अपने काम पर भी जा सकते हैं। इस प्रक्रिया में स्टॉकिंग की आवश्यकता नहीं होती और इसकी सफलता दर भी 98-99 प्रतिशत तक है।

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